वीर #कुंवर #सिंह
“अस्सी वर्षों की हड्डियों में जागा जोश पुराना था,
सब कहते हैं कुंवर सिंह भी, बड़ा वीर मर्दाना था!”
विरले होते हैं वो लोग, जिनके नाम के आगे “वीर” शब्द अपने आप ही जुड़ जाता है! और इसी फेहरिस्त में एक नाम है “वीर कुंवर सिंह” का!
बिहार की धरती पर जगदीशपुर के राजघराने में जन्मा था वो राजा भोज का वंशज, जिसने अस्सी वर्ष की उम्र में भी फिरंगियों के खिलाफ विद्रोह की अगुवाई की, और ना सिर्फ अगुवाई की, बल्कि फिरंगियों को खदेड़ खदेड़ कर मारा!
जिसने हाथ में अंग्रेजों की एक गोली लग जाने की वजह से वह हाथ ही अपवित्र हुआ जानकर उसे काटकर गंगा जी में बहा दिया!
उस अस्सी वर्ष के बुजुर्ग की दहाड़ से अंग्रेजी हुकूमत कांप जाती थी!
सचमुच अतुल्य है अपना भारतवर्ष, जहां उड़ीसा का बाजी राउत मात्र बारह वर्ष की उम्र में फांसी पर चढ़ जाता है, तो कही बिहार का एक वृद्ध राजा अस्सी वर्ष की उम्र में भी पूरे जोश के साथ अंग्रेजों को दौड़ा दौड़ाकर मारता है!
बात थी 1857 की….और 1777 में जन्मा वह क्षत्रिय कुल में परमार राजा भोज का वंशज अपनी धरती पर फिरंगियों द्वारा हो रहे अत्याचारों को देख रहा था, परख रहा था और आखिरकार जब 1857 में क्रांति का बिगुल बजा तो उस वीर से रहा नहीं गया! निकल पड़ा वो अपनी बंदूकें और तलवार भाले लेकर खुले मैदान में!
राजघराने में जन्में थे वो! चाहते तो आराम से महल में पड़े रह सकते थे, शांति से जीवन का बचा हुआ समय काट सकते थे, पर जिसे देश की माटी से प्रेम हो जाता है, उसे गद्दी नहीं सुहाती!
कुंवर सिंह ने भी क्रांतिकारियों के साथ सरकार के खिलाफ बिगुल बजा दिया! परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने इनके घर पर हमला किया! बाबु साहब को घर छोड़ना पड़ा, पर उन्हें घर का मोह कहा था! उन्होंने गाजीपुर, बनारस, बलिया आदि जगहों पर क्रांति की मशाल जलाए रखी!
गुरिल्ला युद्ध में माहिर बाबु कुँवर सिंह ने अंग्रेजों पर चोरी छुपे हमले जारी रखे और सरकार की नींद हराम कर दी!
बिहार के दानापुर रेजिमेंट, रामगढ़ के सिपाहियों और बंगाल के बैरकपुर ने अंग्रेजो के खिलाफ धावा बोल दिया! इसके साथ ही इसी दौरान मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, झांसी और दिल्ली में भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी! इस दौरान वीर कुंवर सिंह ने अपने साहस, पराक्रम और कुशल सैन्य शक्ति के साथ इसका नेतृत्व किया और ब्रिटिश सरकार को उनके आगे घुटने टेंकने को मजबूर कर दिया था!
अपने अभियान के दौरान कुंवर सिंह ने आरा शहर और जगदीशपुर को तो आजाद कराया ही, साथ ही आजमगढ़ को भी आजाद कराया!उन्होंने देखा कि आजमगढ़ से सैनिक लखनऊ भेजे गये हैं, तो उन्होंने मौके का फायदा उठाकर आजमगढ़ पर कब्जा कर लिया और उनकी वजह से आजमगढ़ 81 दिनों तक आजाद रहा था!
25 जुलाई, 1857 को जब आरा शहर पर विद्रोहियों का कब्जा हो गया था तो कुंवर सिंह ने तत्काल आरा शहर के प्रशासन को सुव्यवस्थित किया! हालांकि आजादी चंद दिनों की ही थी मगर उनके शासन प्रबंध की लोग खूब तारीफ करते थे! उनकी आखिरी जीत जगदीशपुर की आजादी थी!
वीर कुंवर हर एक युद्ध में अपनी नीति बदलते थे! एक बार उनकी सेना अंग्रेजों के आक्रमण के साथ पीछे हट गई और अंग्रेजों को लगा कि वे जीत गए! लेकिन यह वीर कुंवर की युद्ध नीति थी ,क्योंकि जब अंग्रेज सेना अपनी जीत के नशे में उत्सव मना रही थी तब उन्होंने अचानक से जोरदार आक्रमण कर किया! इस आक्रमण से चौंके ब्रिटिश सिपाहियों को सम्भलने का मौका तक नहीं मिला! इसी तरह हर बार एक नयी नीति से वह अंग्रेजों के होश उड़ा देते थे!
आजमगढ़ के युद्ध के बाद बाबू कुंवर सिंह 20 अप्रैल 1858 को गाजीपुर के मन्नोहर गांव पहुंचे! वहां से वह आगे बढ़ते हुए 22 अप्रैल को नदी के मार्ग से जगदीशपुर के लिए रवाना हो गये! इस सफर में उनके साथ कुछ साथी भी थे! इस बात की खबर किसी देशद्रोही ने अंग्रेजों तक पहुंचाई!
ब्रिटिश सेना ने इस मौके का फायदा उठाते हुए रात के अंधेरे में नदी में ही उन पर गोलियां बरसाना शुरू कर दिया!अंग्रेजों की तुलना में उनके सिपाही कम थे लेकिन वीर कुंवर तनिक भी भयभीत नहीं हुए! उन्होंने अपनी पूरी ताकत से अंग्रेजों का मुकाबला किया! इस मुठभेड़ में एक गोली उनके दाहिने हाथ में आकर लगी, लेकिन उनकी तलवार नहीं रुकी! कुछ समय पश्चात जब उन्हें लगा कि गोली का जहर पुर शरीर में फ़ैल रहा है तो इस वीर सपूत ने अपना हाथ काटकर ही नदी में फेंक दिया!
कवि मनोरंजन प्रसाद ने इस घटना पर लिखा है…
“दुश्मन तट पर पहुँच गए जब कुंवर सिंह करते थे पार,
गोली आकर लगी बाँह में दायाँ हाथ हुआ बेकार!
हुई अपावन बाहु जान बस, काट दिया लेकर तलवार,
ले गंगे, यह हाथ आज तुझको ही देता हूँ उपहार!
वीर मात का वही जाह्नवी को मानो नजराना था,
सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था!”
हाथ कट जाने के बावजूद भी वह लड़ते रहे और जगदीशपुर पहुंच गए! लेकिन तब तक जहर उनके शरीर में फ़ैल चुका था और उनकी तबियत काफी बिगड़ गई थी!
उनका उपचार किया गया और उन्हें सलाह दी गई कि अब वह युद्ध से दूर रहें! लेकिन वीर कुंवर को अपनी रियासत अंग्रेजों से छुड़ानी थी और उन्होंने अपने जीवन के अंतिम युद्ध का बिगुल बजाया! उनकी वीरता के आगे एक बार फिर अंग्रेजों ने घुटने टेके और जगदीशपुर फिर से उनका हो गया! 23 अप्रैल को उन्होंने कैप्टन ली ग्रांट को हराकर अपना जगदीशपुर अग्रेजो से छीन लिया!
“चार्ल्स बॉल” ने अपनी पुस्तक में उस दिन के पराजय का बखान करते हुए एक अंग्रेज अफसर का पत्र छापा है, जो स्वयं इस लाड़ाई में शामिल था! उन्होंने लिखा है कि…
“वास्तव में पराजय के बाद जो कुछ हुआ उसे लिखते हुए मुझे लज्जा आती है! लड़ाई का मैदान छोड़कर हमने जंगल में भागना शुरू किया! शत्रु हमे बाराबर पीछे से पीटता रहा! हमारे सिपाही प्यास से मर रहे थे! एक निकृष्ट गंदे से छोटे से पोखर को देखकर वे घबराकर उसकी ओर लपके! इतने में कुंवर सिंह के सवारों ने पीछे से दबाया! इसके पश्चात हमारे जिल्लत की कोई हद रही! हम में से किसी में शक्ति नहीं रही, जहां जिसको कुशल दिखाई दिया, वह उसी ओर भागा! अफसरों की आज्ञाओं को किसी ने परवाह किया! व्यवस्था और कवायद का अंत हो गया! चारों ओर आहों, श्रापों और रोने के सिवा कुछ सुनाई नहीं देता था! मार्ग में अंग्रेजों के गिरोह के गिरोह मारे गरमी के गिर-गिर कर मर गए!किसी को दवा मिल सकना भी असंभाव था, क्योंकि हमारे अस्पताल पर कुंवर सिंह ने पहले ही कब्जा कर लिया था!”
“कुछ वहीं गिर कर मर गए तथा शेष को शत्रु ने काट डाला! हमारे कहार डोलियां रख-रख कर भाग गए! सब घबराए हुए थे, सब डरे हुए थे! 16 हाथियों पर केवल हमारे घायल साथी लदे हुए थे! स्वयं जनरल लीग्रेंड की छाती में एक गोली लगी और मर गया!हमारे सिपाही जान लेकर पांच मील से उपर दौड़ चुके! उनमें अब अपनी बंदुक उठाने की भी शक्ति रह गई थी!सिक्खों को वहां के धूप की आदत थी! उन्होंने हमसे हाथी छीन लिए और हमसे आगे भाग गए! गोरों का किसी ने साथ नहीं दिया!”
199 गोरों में से केवल 80 इस भयंकर संहार से जिंदा बच सके! हमारा इस जंग में जाना ऐसा ही हुआ जैसे पशुओं का कसाई खाना में जाना! हम यहां केवल बध होने के लिए गए थे!”
कुंवर सिंह जीत गए….लेकिन इस जीत पर जश्न की जगह मातम हुआ क्योंकि भारत माँ के इस वीर सपूत ने आज ही के दिन 26 अप्रैल 1858 को हमेशा-हमेशा के लिए दुनिया से विदा ले ली थी!
भारत माता का वह शेर, संसार से विदा हो गया लेकिन एक उदाहरण छोड़कर गया कि वीरों के लिए उम्र कोई मायने नहीं रखती और अस्सी वर्ष की अवस्था में भी कुशल नेतृत्व द्वारा फिरंगियों की चूलें हिलाई जा सकती हैं!
कुंवर बाबु…..आज आप नहीं हैं, लेकिन ये देश, ये धरती आपको हरदम याद रखेगी!
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26/04/2021