पिछले सात दिनों से मैं पश्चिम बंगाल प्रवास पर हूँ। मैं हर वर्ष 10 से 15 दिनों के लिए बांग्लादेश से सटे गाँवों-कस्बों-शहरों में जाता हूँ। इस बार भी मेरा न्यू जलपाईगुड़ी, सिल्लीगुड़ी, इस्लामपुर, मालदा टाऊन, मुर्शिदाबाद आदि शहरों और उनसे सटे गाँवों-कस्बों में जाना हुआ। पश्चिम बंगाल के इस इलाके की ज़मीन बहुत उपजाऊ है। पानी मात्र 20 फुट की गहराई पर है। फ़सलें तीन-तीन होती हैं। बाग-बगीचों की बहुतायत है। हरी सब्जियाँ, आम के बगीचे, चाय के बागान, मक्के और उम्दा किस्म की धान की फसलें इन इलाकों को खूबसूरती और समृद्धि दोनों प्रदान करती हैं। इन इलाकों में प्रवास करने के बाद पश्चिम बंगाल के बारे में आपकी धारणा बदलेगी। कश्मीर यदि भारत का स्वर्ग है तो यहाँ के हरे-भरे बाग-बगीचे, स्वच्छ प्राकृतिक वातावरण, अनुकूल मौसम आदि इसे विशेष खूबसूरती प्रदान करते हैं।
यहाँ के बाज़ारों में भीड़ है, रौनक है, क्योंकि हर बाज़ार से सैकड़ों छोटे-छोटे गाँव अटैच्ड और उन पर निर्भर हैं। इसलिए यहाँ व्यापार की असीम संभावनाएँ हैं। परेशानी केवल लॉ एंड आर्डर सिचुएशन और बदलती डेमोग्राफ़ी है। शहरों की स्थिति देश के अन्य राज्यों की तरह सामान्य है, पर गाँवों में डेमोग्राफ़ी में भयावह असंतुलन है। अधिकांश गाँवों और कस्बों में मुसलमानों की बहुतायत है। बांग्लादेश से आए मुसलमान भी बड़ी संख्या में हैं। उनकी बहुतायत होने से स्थानीय हिंदू अन्य शहरों या सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन कर जाते हैं। पलायन हिंदुओं की बड़ी समस्या है। थोड़ी कठिनाई, थोड़ी चुनौती उपस्थित होने पर वे पलायन कर जाते हैं। संगठित एवं प्रायोजित हिंसा उन्हें पलायन के लिए उकसाता है। हिंसा का प्रचार-प्रसार उनमें भय पैदा करता है। घोर आश्चर्य है कि पीड़ितों से भी अधिक इस हिंसा का प्रचार-प्रसार हमलावर करते हैं। परिणाम यह होता है कि अपनी ज़मीन-जायदाद, खेती-बाड़ी, जमे-जमाए व्यापार आदि को छोड़कर भी हिंदू पलायन कर जाते हैं। और उनके पलायन के बाद बड़ी योजना व कुशलता से पहले कुछ मुसलमान उनकी जमीन बटाई पर लेते हैं, बाग-बगीचे लेते हैं, घर की देखभाल की जिम्मेदारी संभालते हैं। समय पर ज़मीन-मालिक को उनकी हिस्सेदारी भी देते हैं। पर यह क्रम बमुश्किल दो-चार साल चलता है। उसके बाद वे औने-पौने के दाम पर उन ज़मीनों पर मालिकाना हक प्राप्त करते हैं, घर पर कब्ज़ा आदि का भय दिखाकर उसे अपने नाम कराते हैं। स्थानीय हिंदुओं से व्यापार निकलने के बाद रोजमर्रा के व्यापार पर उनका एकछत्र कब्ज़ा होता है। मालदा का इलाका आम के बगीचों के लिए प्रसिद्ध रहा है। उन आम के अधिकांश बाग़-बगीचों, फलों-सब्जियों की मंडियों पर अब मुसलमानों का राज है। इस पलायन को रोकना पश्चिम बंगाल जैसे सीमावर्त्ती प्रांत के लिए सर्वाधिक आवश्यक है। पलायन और आत्मविस्मृति हिंदुओं की सबसे बड़ी समस्या है।
ग्रामीण स्थिति की डेमोग्राफ़ी में कुछ इलाकों में 70-30 का अनुपात है। मेरा मुस्लिम इलाकों में भी जाना हुआ। कुछ स्थानों पर तो मुस्लिम समाज के प्रभावशाली लोगों ने ही मेरी मेजबानी की। उनके बच्चों-महिलाओं-लड़कियों से भी मेरा मिलना हुआ। एक मुसलमान ने मेरे लिए फॉर्च्यूनर की कार और ड्राइवर उपलब्ध कराया। उसने ज़ोर दिया कि आप इसी गाड़ी से ग्रामीण इलाकों में जाइए, अलग प्रभाव पड़ेगा, लोग इकट्ठे होंगें। मुझे आश्चर्य हुआ कि गाँव में रहकर भी वह आलीशान लग्ज़री लाइफ जी रहा था। एक स्थानीय मुसलमान के 125 से अधिक मदरसे-स्कूल्स-प्रोफेशनल इंस्टीट्यूशन्स हैं। उसने कई हॉस्पिटल्स भी खोल रखे हैं। मेरा कई मदरसों में भी जाना हुआ, मुस्लिम लड़कियों के लिए चलने वाले मज़हबी स्कूल्स, नर्सिंग एवं फार्मा कॉलेज में भी जाना हुआ। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि बांग्लादेश से बिलकुल सटे उन इलाकों में शानदार इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ वे मदरसे-स्कूल्स-नर्सिंग-फार्मा कॉलेजेज चल रहे हैं। उन मदरसों से हर वर्ष 50 के आस-पास नौजवान सऊदी अरब मज़हबी पढ़ाई के लिए जाते हैं। उनमें से अधिकांश ईमाम एवं बुख़ारी बनते हैं। उन मदरसों में 7 वर्ष से लेकर 30 वर्ष तक की आयु के मुस्लिम बच्चे-नौजवान तालीम लेते हैं। देश भर से उनके लिए पैसा आता है। सऊदी अरब फंडिंग करता है और राज्य सरकार की तमाम योजनाओं का वे सर्वाधिक लाभ लेते हैं। उनका पूरा तंत्र सरकारी धन एवं योजनाओं का लाभ लेने के लिए काम करता है। जो काम हम-आप महीनों और वर्षों में नहीं करवा सकते, वे दिनों में करवाते हैं। यह भी अचरज हुआ कि उन सीमावर्त्ती अधिकांश इलाकों में पुलिस-प्रशासन में मुस्लिम पदाधिकारियों की बहुतायत थी। यह सत्ता-तंत्र से बिना सांठ-गाँठ किए संभव नहीं। मुस्लिम लड़कियों एवं महिलाओं से भी मेरा संवाद हुआ। उनमें से कुछ कंम्प्यूटर पर काम करती दिखीं, कुछ ने अपनी मज़हबी तालीम के बारे में मुझे समझाने का प्रयास किया, कुछ ने मुझे लैब और हर्बल का काम बताया और दिखाया। मदरसों में मेरी यात्रा के दौरान उन्होंने फुटबॉल और बॉलीबाल का मैच रखा। अधिकांश नौजवान टीशर्ट के ऊपर क़ुर्त्ता और अनिवार्यतः लुंगी पहने हुए थे। ऐसे लगभग 5000 से अधिक बच्चे वहाँ थे। मेरा 100 से भी अधिक तालीमियों के साथ संवाद हुआ। लड़कियों और महिलाओं में मज़हबी तालीम से अधिक साइंस एंड टेक्नोलॉजी के प्रति ललक दिखी, पर नौजवानों में भयानक कट्टरता थी। कालांतर में उन लड़कियों में भी कट्टरता संभव है।
एक मुस्लिम परिवार में मेरा जाना हुआ तो उसने मुझे सगर्व बताया कि वह एक पिता और उनकी 3 पत्नियों से कुल 39 भाई हैं, बहनें अलग। मेरे मित्र के यह पूछने पर कि ”आपके क्या 3 बच्चे हैं?” उसने सगर्व उत्तर दिया- नहीं, 6. फिर दुहराया, हमारे समाज में कम बच्चों को गुनाह माना जाता है। अल्लाह के फ़जल से हमारी बीवियों की सेहत पर भी इसका कोई बुरा असर नहीं होता और मेरे भाई की मौत के बाद मैंने उसके बच्चे को भी ऑन पेपर गोद लिया हुआ है। हिंदुओं की घटती जनसंख्या और मुस्लिमों की बढ़ती आबादी वैसे तो पूरे देश की समस्या है, पर इन इलाकों की सबसे बड़ी समस्या है। आप संख्या-बल के मोर्चे पर उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकते। और यदि आपने ग़लती से भी कभी ऐसी सलाह दे दी तो आपको हिंदू-समाज के द्वारा ही पल भर में पिछड़ा घोषित कर दिया जाएगा। हिंदू समाज की लड़कियाँ और स्त्रियाँ सबसे पहले आपके विरुद्ध विद्रोह का झंडा उठा लेंगीं। पर उनके मर्द-औरत किसी को इसका कोई अपराध-बोध नहीं था। मैंने एक औरत से भी पूछा कि आपको इन 8-8 बच्चों को पालने में कठिनाई तो होती होगी। वह हँसी और बोली कि सब पल जाते हैं, हमारे में यही रिवाज़ है, औसतन 6-8 बच्चे हैं उनके। इस फ्रंट पर यदि हम नहीं लड़े तो संख्या-बल की लड़ाई हम हार चुके हैं। और इस मोर्चे की लड़ाई में पढ़ी-लिखी हिंदू स्त्रियों को समझाना-बुझाना सबसे बड़ी चुनौती।
एक और बात नोटिस करने योग्य है। एक मुसलमान ने मुझे बताया कि दीनी तालीम या मदरसे-फार्मा-नर्सिंग में पढ़ने वाले इन बच्चों से हम कोई फीस नहीं लेते। जो सक्षम हैं, वे 1000 रुपए महीने के हिसाब से फीस देते हैं। ”पैसा कहाँ से आता है”- प्रश्न को पहले तो वे टालते रहे, पर मेरे बार-बार पूछने पर उन्होंने माना कि खाड़ी देशों, केरल और देश के समृद्ध मुसलमान उन्हें दान देते हैं। जो उन्होंने नहीं बताया, वह यह था कि ये दान या ज़कात डेमोग्राफ़ी बदलने और बांग्लादेशी मुसलमानों को वैध बनाने के लिए ही है। पर हम हिंदुओं में धर्म-काज के लिए भी लोग ज़ल्दी अपनी जेब से पैसा नहीं निकालना चाहते, शिक्षा की बात तो भूल ही जाइए। जो थोड़े सक्षम हैं वे अपने बच्चे को कॉन्वेंट में पढ़ा-लिखा क्रिश्चियन अंग्रेज बनाना चाहते हैं और उनके लिए इस्लामी तालीम सबसे पहले है। यदि हम हिंदू केवल कॉन्वेंट का बहिष्कार भर कर दें, वहाँ अपने बच्चों को न भेजें तो कुछ संस्कार-मूल्य बचाए जा सकते हैं। पर कोई तैयार नहीं होता। अंग्रेजी बोलना हमारी प्रगति का एकमात्र पैमाना होता जा रहा है।
बहरहाल स्थानीय भाजपा विधायक-सांसद से मिलने के लिए मैंने समय माँगा। बड़ी मुश्किल से संपर्क सधा पर संपर्क होने पर मालूम चला कि मालदा टाऊन की सांसद महोदया तो चुनाव जीतने के बाद से ही दिल्ली रहती हैं। वर्ष में एकाध बार क्षेत्र विजिट करती हैं। स्थानीय कार्यकर्त्ताओं को भाजपा से कोई शिकायत नहीं है, पर जीते हुए उम्मीदवारों की अनुपलब्धता उन्हें बहुत कचोटती है। इतना कि वे दुबारा उन्हें न चुनने का मन बनाए बैठे हैं और उससे अधिक आश्चर्य मुझे तब हुआ, जब टीएमसी के एक नेता ने मुझे मिलने का समय माँगा, मेरे टालमटोल करने पर वह मुझसे मिलने मेरे होटल पर पहुँचा। वह मेयर रह चुका है। उसकी पत्नी अभी भी विनिंग कैंडीडेट है। स्थानीय हिंदुओं में बदलाव की छटपटाहट है। वे चाहते हैं कि भाजपा जीते ताकि इन इलाकों में विकास की बयार बहे, पूँजी आए, इंडस्ट्री आए, विकास के मोर्चे पर लोगों के मन में अपने लिए जगह बनाना भाजपा की बड़ी उपलब्धि है, पर योग्य कैंडीडेट नहीं दे पाना भाजपा नेतृत्व की बड़ी विफलता है। बल्कि मुसलमानों के बीच भी दबी जुबान में लोगों ने इसे स्वीकारा कि भाजपा राज में बेहतर विकास होता है!
भाजपा पश्चिम बंगाल के लिए एक उम्मीद की किरण है। लोग जानते और मानते हैं कि भाजपा ही पश्चिम बंगाल की तस्वीर और तक़दीर बदल सकती है। पर स्थानीय हिंदुओं को ज़मीन पर काम करता हुआ, उनकी लड़ाई लड़ता हुआ, विभिन्न सरकारी योजनाओं के लाभ को आम हिंदू मतदाता वर्ग तक डाउन द लाइन पहुँचाता हुआ ज़मीनी नेता चाहिए, हवा-हवाई नेता नहीं। भाजपा, पश्चिम बंगाल की असली समस्या यह है कि उनके पास ज़मीन पर लड़ने-जूझने वाले नेता ही नहीं हैं। यदि ऐसे नेता भाजपा को मिल जाएँ तो हिंदू सचमुच थोड़े मुसलमान भी उसे वोट देंगें। पर दुर्भाग्यपूर्ण है कि भाजपा के अधिकांश जीते हुए नेता भी क्षेत्र में समय नहीं देते, राज्य से बाहर ही रहते हैं, दिल्ली की राजनीति में ज़्यादा रुचि रखते हैं। केंद्रीय एवं प्रांतीय नेतृत्व भी परिक्रमा करने वालों के झाँसे में आ जाते हैं।
और हाँ, हम सबको भी पश्चिम बंगाल की हिंसा का इतना प्रचार-प्रसार नहीं करना चाहिए कि सेल्फ़ गोल हो जाए। मैंने ऊपर कहा कि हिंसा का प्रचार-प्रसार हमलावर समूह-समुदाय का हौसला बढ़ाने का काम करता है और प्रतिरोध को कमज़ोर करता है, अनावश्यक डर एवं आशंकाएँ पैदा करता है और पलायन को बढ़ावा देता है। यह युद्ध में मोर्चा संभालने वाले ज़मीनी और जुझारू आम नौजवानों का मनोबल तोड़ता है। अंतिम बात, पश्चिम बंगाल का प्रवास बढ़ाइए। वर्ष के कुछ दिन ही सही पर, इसके गाँव-कस्बे-शहरों में कुछ दिन बिताइए। यदि बांग्ला जानते हों तो यह और परिणामदायी रहेगा।