भारत-इज़राइल संबंध: वोटबैंक की राजनीति से मुक्त

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इज़राइल के प्रधानमंत्री नफ्ताली बेनेट 2 अप्रैल को चार दिवसीय भारत यात्रा पर होंगे। यह भारत में उनका पहला आधिकारिक दौरा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें भारत-इज़राइल के राजनायिक संबंधों को 30 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य पर भारत आने का निमंत्रण दिया था। इसे स्वीकार करते हुए इजराइली समकक्ष ने जो वक्तव्य जारी किया, उसके अनुसार, “प्रधानमंत्री मोदी वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने भारत और इज़राइल के बीच संबंधों को फिर से गति दी, जिसका ऐतिहासिक महत्व है। दो अनूठी संस्कृतियों के बीच गहरे संबंध रहे हैं… जो गहरी प्रशंसा और महत्वपूर्ण सहयोग पर आधारित हैं।”

यद्पि भारत ने वर्ष 1950 में इज़राइल को एक देश स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दी थी, किंतु उसके साथ सामान्य संबंध स्थापित करने में चार दशक से अधिक का समय ले लिया। वास्तव में, इसमें मुस्लिम वोटबैंक की राजनीति मुख्य अवरोधक बनी हुई थी। 13 जून 1947 को प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने भारत की स्वतंत्रता से कुछ दिन पूर्व, देश के भावी प्रधानमंत्री पं.नेहरू को पत्र लिखकर इज़राइल को एक स्वतंत्र यहूदी राष्ट्र के रूप में स्वीकार करने का निवेदन किया था, जिसे पं.नेहरू ने अस्वीकार कर दिया। इसी आधार पर भारत ने 1948 में संयुक्त राष्ट्र में इज़राइल के गठन के ख़िलाफ़ मत भी दे दिया। वीर सावरकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर प्रारंभ से ही राजनीतिक और नैतिक आधार पर इज़राइल का साथ देने की पैरवी कर रहे थे।

भारत-इज़राइल संबंध में मुस्लिम वोटबैंक की गांठ तब खुली, जब भारतीय जनता पार्टी हिंदुस्तान के राजनीतिक पटल पर मुखर होकर उभरी और उसने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 1996 (13 दिन), 1998 (13 माह) के बाद 1999 से 2004 तक सफलापूर्वक सरकार का संचालन किया। भले ही 1992 में तत्कालीन प्रधानमंत्री दिवंगत नरसिम्हा राव ने इज़राइल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित किए, किंतु वर्ष 2000 में पहले केंद्रीय मंत्री के रूप में लालकृष्ण आडवाणी और फिर जसवंत सिंह ने इज़राइल का दौरा किया था। इस दौरान दोनों देशों ने आतंकवाद विरोधी समिति के गठन पर सहमति जताई थी। इसके बाद सितंबर 2003 में एरियल शेरॉन भारत का दौरा करने वाले पहले इजराइली प्रधानमंत्री बने। तब अलगाववादी चिंतन और भारत-हिंदू विरोधी दर्शन से ग्रसित वामपंथियों और कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों ने शेरॉन के विरोध में प्रदर्शन किया था। किंतु अटलजी ने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी।

भारत-इज़राइल के संबंधों में आमूलचूल परिवर्तन तब आया, जब 2014 में भाजपा नीत राजग को प्रचंड बहुमत मिलने के तीन वर्ष बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, इज़राइल का दौरा करने वाले स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। जैसे ही 4 जुलाई 2017 को प्रधानमंत्री मोदी ने यहूदी धरती पर कदम रखा, वैसे ही सात दशक पुरानी छद्म-पंथनिरपेक्षों की कुत्सित परंपरा टूट गई, जिसमें राष्ट्रहित की अवहेलना करते हुए अरब समुदाय सहित विश्व के शेष इस्लामी राष्ट्रों और देश के मुस्लिम कट्टरपंथियों को अप्रसन्न नहीं करने की नीति अपनाई जा रही थी। इसके बाद वर्ष 2018 में तत्कालीन इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भारत दौरे पर आए।

भारत-इज़राइल के बीच व्यापारिक संबंध लगभग डेढ़ सहस्राब्दी से घनिष्ठ रहे है। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2017 में अपने समकक्ष बेंजामिन नेतन्याहू को भेंटस्वरुप दिए दो उपहारों से स्पष्ट है, जिसमें प्राचीन ताम्र पट्टिकाओं की वह प्रतिलिपि शामिल थी, जिन्हें तत्कालीन हिंदू सम्राट चेरमन पेरूमल, जो भास्कर रवि वर्मा के नाम से भी विख्यात थे- उन्होंने यहूदी नेता जोसेफ रब्बान को दी थी। एक पट्टिका में जहां यहूदी समुदाय को दी गई सुविधाओं का उल्लेख था, तो दूसरी में यहूदियों से व्यापार का विस्तृत विवरण। यही नहीं, संकट के समय भी भारत-इज़राइल एक-दूसरे का साथ देते रहे है। जहां वर्ष 1918 में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान इज़राइल के हाइफा को स्वतंत्रता दिलाने में भारतीय शूरवीरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वही इज़राइल ने 1962 और 1965, 1971 व 1999 में क्रमश: चीनी और पाकिस्तानी हमलों में भारत की प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से सहायता की थी।

भारत और इज़राइल में कई समानताएं है, जो उन्हें लगभग एक ही कालखंड में स्वतंत्र राष्ट्र घोषित होने के साथ मजहब के नाम हिंसा का शिकार होने के कारण भी एक-दूसरे का परस्पर सहयोगी बनाता है। मध्यकाल में भारत इस्लामी अतातायियों और रोमन कैथोलिक चर्च प्रेरित ‘मजहबी हमले’ का शिकार हुआ, किंतु कोई भी यहां की कालजयी संस्कृति को नष्ट नहीं कर सका। वहीं इज़राइल पर पहले ईसाइयत और बाद में इस्लामी हमलों का अविरल दमनचक्र चला। भयावह उत्पीड़न और नरसंहार के कारण उन्हें अपनी जन्मभूमि से पलायन करके अन्य देशों में शरण लेनी पड़ी। रूस, यूक्रेन, पूर्वी यूरोप में भी उन्हें घोर नृशंस यातनाएं सहनी पड़ी। इसमें वर्ष 1466 में तत्कालीन पोप पॉल-2 के निर्देश पर क्रिसमस के दिन रोम में यहूदियों को सरेआम नग्न घुमाना, कालांतर में यहूदी पुजारियों (रब्बी) को विदूषक परिधान पहनाकर जुलूस निकालना और दिसंबर 1881 को पोलैंड के वारसॉ में 12 यहूदियों को उन्मादी ईसाइयों द्वारा निर्ममता के साथ मौत के घाट उतारना और उनकी कई महिलाओं से बलात्कार करना तक शामिल है। अब चूंकि जन्म से क्रूर हिटलर भी ईसाई था, तो क्या इस नरपिशाच को यहूदियों के नरसंहार की प्रेरणा चर्च प्रेरित यहूदी विरोधी अभियानों से मिली थी? इज़राइल यह सहर्ष स्वीकार करता है कि अपने दो हजार वर्ष के लंबे प्रवासकाल के दौरान यहूदियों को केवल भारत में मजहब के आधार पर भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा।

जिस प्रकार भारत मजहबी कारणों से इस्लामी आतंकवाद को वर्ष 712 से अभी तक किसी न किसी रूप में झेल रहा है, उसी प्रकार वैश्विक मुस्लिम समाज के बड़े भाग की आंखों में घोषित यहूदी राष्ट्र- इज़राइल भी खटकता है। इसी कारण वह 1948, 1949, 1967, 1973 और 1974 में अपने पड़ोसी मुस्लिम देशों के प्रत्यक्ष मजहबी युद्ध झेल चुका है, तो आजतक इस्लामी आतंकवादी हमलों का शिकार हो रहा है। इसमें वर्ष 1972 में फिलीस्तीनी आतंकवादियों द्वारा म्यूनिख ओलंपिक खेलगांव में घुसकर इजरायली खिलाड़ियों की नृशंस हत्या करना और 1974 में इस्लामी आतंकवादियों द्वारा इजराइली स्कूल में 21 बच्चों को जघन्य तरीके से मार डालना शामिल है। ऐसे ही जिहादी हमलों की संभावना को देखते हुए अपने नागरिकों की रक्षा और उचित प्रतिकार करने हेतु इज़राइल ने 1949 में ‘मोसाद’ नामक सशक्त खुफिया एजेंसी का गठन किया था।

इतना कुछ झेलने के बाद भी आज इज़राइल एक संपन्न और समृद्ध राष्ट्र के रूप में विद्यमान है- इसलिए मिस्र, जॉर्डन, बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात आदि मुस्लिम देश इज़राइल के साथ शांति समझौता करने को बाध्य हुए। आखिर दुनिया के एकमात्र यहूदी देश की इस सफलता का रहस्य क्या है? वास्तव में, इसका उत्तर इज़राइलवासियों के उस राष्ट्रवाद और देश के प्रति समर्पण भाव में छिपा है, जिसने सैंकड़ों वर्षों तक बेघर होने और अमानवीय यातनाएं सहने के बाद भी अपने घर वापस लौटने की भावना को समाप्त नहीं होने दिया। यह इस बात स्पष्ट है कि विस्थापनकाल में जब भी एक यहूदी किसी दूसरे यहूदी को पत्र भेजता था, तो अंत में एक वाक्य अवश्य लिखता था- ‘हम जल्द ही यरुशलम में मिलेंगे’। अब चूंकि भारत मई 2014 के बाद से वांछित परिवर्तन का अनुभव कर रहा है और राष्ट्रवाद की भावना प्रखर है, तो ऐसे में हम इज़राइल के साथ मिलकर कैंसर का फोड़ा बन चुके मजहबी आतंकवाद के सफाए में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।

बलबीर पुंज जी द्वारा लिखित यह लेख सर्वप्रथम पंजाब केसरी 23/3/22 के अंक में प्रकाशित हुआ है।

Balbir Punj
Balbir Punj is a journalist & former Rajyasabha Member

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