“चाहे मुझे आजीवन वनों, जंगलों में भटकना पड़े, हर कदम पर मृत्यु का सामना करना पड़े, चाहे मेरे पुत्र, पुत्रियां और मेरे कुटुंब को महलों का सुख त्यागना पड़े, मुझे अपनी निद्रा त्यागकर हर घड़ी तलवार और ढाल के साथ बितानी पड़े, किंतु बप्पा रावल की गद्दी का ये उत्तराधिकारी, गौरवशाली मेवाड़ी हमीर और सिसोदिया कुल का ये वंशज, एकलिंग जी के दीवान के रूप में प्रतिज्ञा करता है कि जब तक अपनी मातृभूमि का एक एक अंश मलेच्छों के राज से वापस छीन नहीं लूंगा, तबतक न तो महलों का सुख भोगूँगा, न किसी ऐश्वर्य की सामग्री का प्रयोग करूंगा और ना ही सोने चांदी के बर्तनों में भोजन करूंगा!”
ये प्रतिज्ञा थी उस मेवाड़ के रजपूती राजघराने के सिसोदिया कुल के गौरव, राजपूत शिरोमणि महाराणा प्रताप की, जिन्होंने गद्दी पर बैठते ही ऐसी भीषण प्रतिज्ञा न सिर्फ ली, बल्कि इसे आजीवन शब्दशः पालन भी किया!
इस प्रतिज्ञा को सुनकर दुर्ग में उपस्थित सभी क्षत्रिय सामंतों की भुजाएं फड़क उठीं और सबों के शरीर मे रक्त का संचार एकाएक तीव्र हो उठा!
“महाराणा प्रताप की जय!”
“जय एकलिंग जी!”
“जय भवानी!”
आदि नारों से गोगुन्दा नामक वह स्थान गूंज उठा!
महाराणा के गद्दी पर आसीन होते ही सामंतों और वीर राजपूतों की तलवारों की खनखनाहट और भालो की झनझनाहट के साथ दरबार मे “महाराणा प्रताप की जय” की गूंज मुगल बादशाही को गरज गरज कर चेतावनी दे रही थी….
“सावधान! सिसोदिया वंश का सूरज जो उदयसिंह के राज में केवल उदित हुआ था, अब प्रताप के राज में मध्याह्न के सूर्य बनकर बादशाही पर अपनी तीव्रतम ऊष्मा फैलाने वाला है!”
“बप्पा रावल,खुमाण और हम्मीर का वंशज अपने पूर्वजों की गौरवगाथा में चार चांद लगाने के लिए राजपूताने की गद्दी पर आसीन हो चुका है!”
“उदयसिंह ने राजनीति से काम लिया, लेकिन उनका पुत्र अब रक्तनीति से काम लेने वाला है!
महाराणा के मेवाड़ की गद्दी पर आसीन होते ही राजपूताने में जैसे नई ऊर्जा का संचार हुआ!चारों ओर हर्ष छा गया और राजस्थान की धरती को जैसे नया जीवन मिला!
महाराणा ने अपनी प्रतिज्ञा निभाई, आजीवन निभाई और क्या खूब निभाई!
घास की रोटी खाई, घास फूस के बिस्तरों पर सोए, भूखे रहे, लड़ते रहे, लेकिन एक दुष्ट, कपटी, हैवान और तुच्छ म्लेच्छ की अधीनता स्वीकार नहीं की!
न तो पिता उदयसिंह ने, न तो स्वयं महाराणा प्रताप ने और ना ही उनके महाराणा अमर सिंह ने कभी उसकी गुलामी स्वीकारी! इस तरह इन तीन पीढ़ियों से लड़ते लड़ते अकबर स्वयं मर गया, पर मेवाड़ पर कभी मुगलिया परचम नहीं लहरा सका!
रजपूती भगवा ध्वज, हमेशा हरी झंडी के पात पात रहा!
महाराणा के विषय में क्या लिखा जाए, कितना लिखा जाए, ग्रंथ के ग्रंथ कम पड़ जाएंगे!
मस्तक पर तेज इतना होता था कि सूर्य भी शर्मा जाए!
भुजाओं में बाहुबल इतना कि शत्रु सीधा सामना करने की बजाए भागकर जान बचाना ठीक समझते थे!
आवाज में वो बुलंदी कि जब महाराणा शत्रु सेना को तीव्र स्वर में डांफ देते थे तब उनके मूत्रमार्ग से मूत्र निकल जाया करता था!
खौफ ऐसा था कि रात को अकबर महाराणा की याद आते ही पसीने पसीने से तर हो जाता था, बिस्तर से उठकर चिल्लाने लगता था!
नेत्रों में अग्नि ऐसी मानो बप्पा रावल, हमीर, खुमाण, कुम्भा, सांगा,उदय सिंह ….सभी पूर्वजों का सम्मिलित तेज उनमें समा गया हो!
हृदय में अपने कुल, अपनी माटी और अपने राजपुतिया गौरव का ऐसा गुमान था कि भले सारा जीवन पहाड़ों में रहना पड़ा, पर एक तुर्क मलेच्छ के आगे सर झुकाने नहीं गए!
गुरु…..राणा तो कई हुए हैं, पर महाराणा तो केवल एक ही हुआ!
आज उसी महाराणा का उदयपर्व है! गर्व कीजिए!
लगा दीजिए गगनभेदी नारा….”महाराणा प्रताप की जय!”
“जय भवानी! जय एकलिंग महादेव!”
#क्रमशः…..