अगर यूट्यूब पर पाकिस्तानी मीडिया एक्सपर्ट्स को बहस करते हुए देखें, तो बार – बार बड़े एहतराम के साथ मादरे वतन का उल्लेख ख़ूब मिलता है। मादरे वतन यानि मातृभूमि। भारत में जावेद अख़्तर या नुसरत या कोई मशहूर मुस्लिम व्यक्ति जब वंदे मातरम कहता है, तो ज़्यादातर लोगों को अच्छा लगता है। तारिक फ़तह तो वंदे मातरम का विरोध करने वालों को अक्सर गरियाते ही रहते हैं। बहर हाल ये बात शायद कम लोगों को मालूम हो कि बस अभी लगभग सौ साल पहले तक, यानि उन्नीसवी शताब्दि के उत्तरार्द्ध तक भारत में भी वंदे मातरम गीत कोई नहीं जानता था। जबकि आज ये गीत अधिसंख्य भारतीयों के लिए अस्मिता और गौरव का प्रतीक बन चुका है।
अभी यानि 26 जून को इस गीत के रचियता बंकिम चन्द्र का जन्मदिन था। वे पहले भारतीय आईसीएस, अंग्रेज़ों के अधीन बड़े अधिकारी बने। डिप्टी कलक्टर थे। अनेक किताबें लिखीं, आनंदमठ से मशहूर हुए। वंदे मातरम गीत इसी उपन्यास का अंग था। अंग्रेज़ों द्वारा इसकी व्याख्या कुछ इस तरह की गई, कि भारत भूमि की वंदना के बहाने यह पुस्तक अंध राष्ट्रवाद को उकसावा देती है। सन् 1882 में पुस्तक प्रकाशित हुई, और इसके मात्र तीन साल बाद ही, सन् 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई। क्या ये मात्र संयोग था? सन् 1857 के बाद अंग्रेज हर क़दम फूंक-फूंककर उठा रहे थे। इतने बड़े बहुराष्ट्र और सोना उगलने वाले उपनिवेश को वे हाथ से, किसी भी कीमत जाने नहीं देना चाहते थे, और विद्रोह का ख़ौफ़ भी ज़ारी था। उन्हें ज़रूरी लगा कि, अगर देसी बिचौलियों का एक तबक़ा उनकी तरफ़ हो जाए, तो बात बन सकती है। उस समय भारत के उच्च मध्यवर्ग के कुछ लोग ब्रिटिश साम्राज्य से अपने लिए बाजार और व्यापार में कुछ छूट चाहते थे। बदले में ये लोग साम्राज्य में बढ़ते असंतोष को कम करने और सन सत्तावन जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न होने देने का अंग्रेजों को भरोसा दे रहे थे। अंग्रेजों और इन बिचौलियों, दोनों को नई संभावनाएं दिखाई दे रही थीं। कांग्रेस की स्थापना के कुछ साल बाद तक अंग्रेज हिंदुस्तानी बिचौलियों की भारतीय समाज पर पकड़ का अनुमान लगाते रहे।
इस दौरान दुनिया भर में बाजार के बंटवारे की मुहिम तेज़ हो रही थी। पहले विश्व युद्ध की आहट सुनाई देने लगी थी। सबसे बड़ा साम्राज्य अंग्रेजों का था, सो जो भी हो उन्हें ही किसी प्रकार कुछ ले देकर अपनी दूकान बचाए रखने की जिम्मेदारी थी। भारत में, विशेषकर पश्चिम भारत में बहुत अच्छे सौदेबाज उभर रहे थे, पूर्व में भावुक बंगाली देशप्रेम का उबाल लाने की तैयारी कर रहे थे। गोखले स्वयं को अपरिहार्य साबित करने में विनम्रता पूर्वक लगे थे। लेकिन बंगाल में राष्ट्रवाद के ज्वार को रोकना नामुमकिन सा लग रहा था।
संकेत मिल रहे थे कि भीतर ही भीतर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैल रही है।
बहरहाल अंग्रेज़ों से भूल हुई, या कर्ज़न की गणना में गड़बड़ी हो गई, भावुक बंगालियों में राष्ट्रवाद के ज्वार को थामने के लिए 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया गया। जो आग राख में दबी थी उसे हवा मिली, वह ज्वाला बन गई। बिचौलियों के लिए यह ज़रूरी था कि वे शासकों को इस बात के लिए संतुष्ट करें, कि भारत के आम लोगों पर उनकी (यानि कांग्रेस) की पकड़ है, और कांग्रेस शासकों के हित में फ़ायर ब्रिगेड का काम अच्छी तरह कर सकती है।
वंदेमातरम गीत, बंगालियों के लिए आत्म गौरव का गीत बन चुका था। छोटी – मोटी टोलियों में यह गीत बंगाल के गांवों में भी गाया जा रहा था, इसलिए मशहूर हो चुका था। 7th अगस्त 1906 को कलकत्ता के टाउन हॉल में बंगाल विभाजन के विरोध में बहुत विशाल जनसभा हुई, जिसमें सबने बड़े जोश के साथ यह गीत गाया।
वक़्त की नब्ज़ को पहचानते हुए अगले ही माह, यानि सितंबर 1906 में अपने वाराणसी अधिवेशन में कांग्रेस ने भी यह गीत गाया था। कांग्रेस के प्लेटफ़ार्म के बाद तो यह गीत जन-जन के ह्रदय की आवाज़ बन गया था।
ब्रिटिश साम्राज्य पर पहले ही से दबाव बढ़ रहा था। यूरोप विशेषकर पूर्वी यूरोप में मज़दूरों का संघर्ष तेज़ी पकड़ चुका था। रूस में घटनाचक्र तेज़ी से बदल रहा था। पहले विश्वयुद्ध की आहट सुनाई देने लगी थी। कांग्रेस के ज़रिये भारत का बिचौलिया वर्ग भी इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। सो स्वतंत्रता के जन्मसिद्ध अधिकार और विदेशी शासन के विरुद्ध जनमत बनाने के लिए कांग्रेस ने भी इसका भरपूर इस्तेमाल किया। सन् 1907 में टाटा ने अपना स्टील प्लांट स्थापित कर लिया था। अंग्रेज़ों के कुछ चाय बाग़ान भी बिचौलियों के हाथ आ गए। अंग्रेज़ों के लिए यह मजबूरी थी पर विकल्पहीनता और भावी युद्ध में स्टील आदि की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए कुछ न कुछ देकर साम्राज्य की सुरक्षा करना जरूरी थी। कांग्रेस धीरे-धीरे सौदेबाज़ी की अपनी ताक़त (बार्गेनिंग पॉवर ) बढ़ाने का पूरा यत्न कर रही थी। उत्तर भारत में विशेषकर वर्तमान पाकिस्तान और उत्तर प्रदेश से लेकर बंगाल में भी अब निम्न मध्यवर्ग, में भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ असंतोष सघन हो रहा था। निम्न मध्यवर्ग के कुछ उत्साही युवक सशस्त्र विद्रोह के रास्ते पर भी विचार कर रहे थे। कुछ छिटपुट घटनाएँ भी हो चुकी थीं। सन सत्तावन का दुःस्वप्न भी अभी तक अंग्रेज़ों के ज़ेहन में था।
बहरहाल डिप्टी कलक्टर आईसीएस बंकिम चंद्र का गीत वंदेमातरम् अब सम्पूर्ण उत्तर भारत के लिए मुक्तिगान बन चुका था। इस गीत के रचियता बंकिम चंद्र को उनके जन्मदिन पर सादर स्मरणांजलि।
वंदे मातरम् के रूप में वो सूत्र दे दिया जिससे सारा भारत जुड़ सका।