सेनापती प्रतापराव गुजर : छत्रपति शिवाजी महाराज को वचन देकर मराठा साम्राज्य के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी ।

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यह गाथा महाराणा प्रताप की नहीं है! अफसोस की बात यह है कि लगभग हम सब महाराणा प्रताप के बारे में जानते हैं, पर इस देश की माटी पर और भी कई #प्रताप हुए हैं, जिनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं!

विक्रमादित्य का नाम सबने सुना है, पर कितने विक्रमादित्य हुए, कब हुए, कहाँ हुए और उनकी क्या उपलब्धियां रहीं, ये जानना बस यूपीएससी वालों के जिम्मे रह गया है!

खैर! यह गाथा है छत्रपति शिवाजी महाराज के एक और बांके वीर सेनानी, सरनौबत (थल सेना प्रमुख) सेनापति प्रतापराव गुजर की!

यह गाथा है उस महावीर की, जो मात्र अपने छह सैनिकों के साथ मुगलों की 15000 की सेना पर टूट पड़ा और अपना बलिदान दे दिया, पर राजे की बात नहीं टाली!

यह गाथा है मराठा साम्राज्य के इतिहास की सबसे साहसिक घटना की!

आप सब कोंडाजी फ़र्ज़न्द के बारे में जान चुके हैं, जिन्होंने मात्र साठ सैनिकों की मदद से एक ही रात में, मात्र साढ़े तीन घण्टे में पन्हाला किला जीत लिया था और उसे स्वराज्य में शामिल कर उसपर पुनः भगवा पताका फहरा दी थी!

बीजापुर के वजीर खवास खाँ को जब पन्हाला दुर्ग हाथ से निकलने का समाचार मिला तो उसने बहलोल खाँ के नेतृत्व में एक बड़ी सेना शिवाजी के विरुद्ध भेजी!

इस पर महाराज ने अपने सेनापति प्रतापराव गूजर को निर्देश दिया कि वह बहलोल खाँ को मार्ग में ही रास्ता रोककर समाप्त करें! प्रतापराव मराठों की बड़ी सेना लेकर बहलोल खाँ के सामने चले और छापामार पद्धति का प्रयोग करते हुए बहलोल खाँ की सेना को चारों तरफ से घेरकर मारना शुरु कर दिया!

बीजापुरियों की जान पर बन आई तथा सैंकड़ों सैनिक मार डाले गए! चारों ओर से घेरकर उनकी रसद काट दी गई जिससे सैनिक तथा घोड़े भूखे मरने लगे! इस पर बहलोल खाँ ने प्रतापराव के समक्ष करुण पुकार लगाई कि उसकी जान बख्शी जाए तथा बीजापुर के सैनिकों को जीवित लौटने की अनुमति दी जाए!

प्रतापराव पिघल गए!

गलती किए!

और पिघले हुए प्रताप ने बीजापुर की सेना को लौटने की अनुमति दे दी! जब बीजापुर की सेना लौट गई तो मराठे अपने शिविर में आराम करने लगे!

बहलोल खाँ धोखेबाज निकला! वह कुछ दूर जाकर रास्ते से ही लौट आया तथा सोती हुई मराठा सेना पर धावा बोल दिया! बहुत सारे मराठा सैनिक मार डाले गए तथा शेष को भागकर जान बचानी पड़ी!

जब राजे को इस घटना का पता चला तो उन्होंने प्रतापराव को पत्र लिखकर फटकार लगाई कि उसे जीवित छोड़ने की क्या आवश्यकता थी!

उन्होंने आदेश दिया कि जब तक बहलोल खाँ परास्त नहीं हो, तब तक लौटकर मुंह दिखाने की आवश्यकता नहीं है!

अब प्रतापराव ने बहलोल के पीछे जाने की बजाय बीजापुर के समृद्ध नगर हुबली पर धावा बोलने की योजना बनाई ताकि बहलोल खाँ स्वयं ही लौट कर आ जाए! जब बहलोल खाँ को यह समाचार मिला तो वह बीजापुर जाने की बजाय हुबली की तरफ मुड़ गया!

मार्ग में शर्जा खाँ भी अपनी सेना लेकर आ मिला!

प्रतापराव, शत्रु द्वारा किए गए धोखे और स्वामी द्वारा किए गए अपमान की आग में जल रहे थे! वह किसी भी तरह से बदला लेना चाहता थे!

24 फरवरी 1674 को उन्हें गुप्तचरों ने एक स्थान पर बहलोल खाँ के होने की सूचना दी!

बहलोल खान का ठिकाना जानते ही प्रतापराव आगा-पीछा सोचे बिना ही अपने मात्र छः अंगरक्षकों को साथ लेकर बहलोल खाँ को मारने चल दिए!

बहलोल खाँ के साथ उस समय पूरी सेना थी!

सामने थे पंद्रह हजार मुगल सैनिक और दूसरी ओर थे स्वराज के मतवाले मात्र सात मावले!

प्रतापराव और उनके छह साथी पूरी ताकत और वीरता से लड़े और शत्रु सेना पर काल बनकर बरसे!

एक वक्त ऐसा भी आया जब बहलोल खान भयभीत हो गया और सोचने लगा कि यदि शिवा के छः सैनिक मुगल सेना का यह हाल कर सकते हैं, तो अगर खुद शिवा आ जाए तो क्या कहर बरपेगा!

मुगलों के “दीन दीन” के नारे पर मावलों का “हर हर महादेव” भारी पड़ने लगा! दरअसल बहुत भारी!

प्रताप के अंदर जैसे स्वयं रणचण्डिका का अंश प्रविष्ट हो गया था!

प्रताप और उनके साथी शत्रु का गाजर मूली की तरह संहार कर रहे थे!

प्रताप के मन में केवल राजे का वचन याद आ रहा था….”जबतक बहलोल खान पराजित न हो जाए, मुझे मुंह मत दिखाना!”

मावलों ने मुगलों को गाजर मूली की तरह काट दिया!

परन्तु कब तक! एक एक करके सभी साथी बलिदान देते गए और अंत मे बचा वह शेर अपनी पूरी शक्ति समेट कर “हर हर महादेव” का उद्घोष करते हुए, दोनों हाथों से पट्टेदार तलवार चलाता हुआ लड़ता रहा, लड़ता रहा!

एक अकेला मराठा! और हजारों की तादात में मुगल!

कहते हैं प्रतापराव शत्रु के साथ साथ अपने ही लहू में इस तरह नहाए हुए थे कि उनका चेहरा और शरीर ही किसी को दिखाई नहीं दे रहा था!

दिख रहा था तो केवल लाल रंग! वीरता का रंग! लहू का रंग! और सर पर टिकी हुई भगवे रँग की पगड़ी!

आखिरकार एक शत्रु ने पीछे से वार किया और वह जख्मी शेर गिर पड़ा!

गिरने के बाद भी उसे पकड़ने गए सैनिकों पर उसने “हर हर महादेव” चिल्लाते हुए अपनी पट्टेदार तलवार आखिरी बार घुमाई और कईयों के सर, हाथ और पैर हवा में उड़ गए!

यह प्रताप का आखिरी वार था शत्रु पर!

उस प्रताप के प्रताप से उस दिन सूरज भी शरमाया होगा! शत्रु तो थर्राया ही था!

“अन्तिम मुजरा(प्रणाम) स्वीकार करा राजे!” कहते हुए उसने अपने प्राण त्याग दिए!

और इस तरह अपने राजे के वचनों का पालन करते हुए इस माटी का एक और वीर सपूत माटी में मिल गया!

उस सांझ को आसमान ने भी केसरी होकर, उस केसरी मावले को अपने साथ रँग लिया था!

जब शिवाजी राजे को प्रतापराव के बलिदान के बारे में ज्ञात हुआ तो उनकी आंखें भर आईं! कुछ आंसू कुछ अभिमान के थे, कुछ शोक के और कुछ पछतावे के!

उन्होंने स्वयं को इसके लिए दोषी ठहराया और कई दिन तक अजीब सी हालत में पड़े रहे!

प्रताप का जाना महाराज और स्वराज के लिए अपूरणीय छति थी! कई दिन तक महाराज उनके दुख से संतप्त रहे और स्वयं जाकर उनके परिवार से मिले!

आगे चलकर महाराज ने प्रतापराव की पुत्री का विवाह अपने छोटे और दूसरे पुत्र राजाराम के साथ करवाया!

यह घटना मराठा इतिहास की सबसे वीरतापूर्ण घटना है!

प्रतापराव और उनके साथियों के बलिदान पर प्रसिद्ध कवि कुसुमाग्रज ने ‘वेडात मराठे वीर दौडले सात’ नामक कविता लिखी है जिसे प्रसिद्ध गायिका लता मंगेश्वर ने गाया है!

प्रताप राव गुर्जर के बलिदान स्थल नेसरी, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में उनकी याद में एक स्मारक भी बना हुआ है!

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