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भारतीय इतिहास: पुनर्लेखन की आवश्यकता

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संसार में यदि सबसे ज्यादा किसी विषय से सीखा जा सकता है तो वह है इतिहास! मैं जब भारतवर्ष के अतीत में झाँककर देखता हूँ तो कभी कभी सीना गर्व से चौड़ा हो उठता है और कभी कभी माथे की रेखाएं विषाद में संकुचित हो उठती हैं! विषाद में इसलिए, क्योंकि अपने स्वाध्ययन के दौरान मैं जब सिलेबस की पुस्तकें उठाता हूँ तो उनके पन्नों में मुझे ऐसी गाथाएं, ऐसा गौरवमयी और भव्य इतिहास मिलता ही नहीं, जो वास्तव में कभी हमारी पूंजी रहा था!

दूसरी बात यह भी है कि पाठ्यपुस्तकों में न जाने क्यों, इतिहास को इतनी नीरस भाषा में लिखा गया है कि आज के विद्यार्थी “इतिहास” शब्द का नाम सुनकर ही चार पोरसे दूर भाग जाते हैं! जिस ढंग से और जिस भाषा में वर्तमान में उपलब्ध भारतवर्ष का अधिकांश इतिहास लिखा गया है वह वास्तव में रुचि पैदा करने की जगह भय पैदा करता है!

इस देश को आजाद हुए लगभग सत्तर वर्ष हो गए! इतना कुछ बदल गया, पर कुछ नहीं बदला तो वह था, “इतिहास” विषय का डर! डर इसलिए क्योंकि इसकी अरुचिकर और नीरस भाषा ने विद्यार्थियों के मन में यह धारणा पैदा कर दी कि इतिहास पढ़ने का मतलब है युद्धों की तारीखें रटना, राजाओं के नाम और उनकी बनाई गईं इमारतों के नाम रटने तक सीमित है!

पर एक बार सभी को अपने अंतर्मन में झांककर देखना चाहिए और स्वयं से प्रश्न करना चाहिए कि क्या वास्तव में इतिहास का दायरा इतना छोटा है? क्या वास्तव में इतिहास युद्धों की तारीखें और राजाओं आदि के नाम रटने तक ही सीमित है?

आपको उत्तर मिलेगा-नहीं!

इतिहास से जितना सीखा जा सकता है, उतना किसी से नहीं सीखा जा सकता! इतिहास चिंतन की विषयवस्तु है, मनन की विषयवस्तु है! इतिहास राजनीति और षड्यंत्रो को समझने का भी जरिया है और अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करने का स्त्रोत भी!

पर आज भारतवर्ष का गौरवशाली इतिहास, जिन स्त्रोतों में और जिस प्रकार की कठिन और नीरस भाषा में उपलब्ध है, उसे देखते हुए लगता है कि इतिहास का पुनर्लेखन होना चाहिए और अवश्य होना चाहिए!

इन सबके आलवां भी एक और महत्वपूर्ण कारण है जिसे जानने और समझने के बाद इतिहास के पुनर्लेखन का विचार और भी मजबूत हो जाता है, और वह तथ्य यह है कि भारत के वर्तमान उपलब्ध इतिहास में ऐसी हजारों घटनाएं, देवासुर संग्राम को भी फीका कर देने वाले सैकड़ों युद्ध और असंख्य नायकों, योद्धाओं की गाथाओं को उचित स्थान नहीं दिया गया है, जिन्हें जानकर प्रत्येक भारतवासी का सीना गर्व से फूल उठे!

प्राचीन भारत का विस्तृत इतिहास, सिंधु घाटी सभ्यता, मोहनजोदड़ो, जैन धर्म, बौद्ध धर्म आदि का प्रादुर्भाव, मगध साम्राज्य, गुप्त काल आदि तक का तो उचित वर्णन और विवरण मिलता है, किंतु मुझे लगता है इतिहास के जिस कालखंड के साथ इतिहास लेखकों ने सबसे ज्यादा अन्याय किया है, वह है मध्यकाल!

मध्यकाल का इतिहास इतना विस्तृत, भव्य और उतार चढ़ाव से भरा हुआ है कि उसे पढ़कर, उसे चिंतन और मनन में लाकर वर्तमान भारत को पुनः सोने की चिड़िया बनाया जा सकता है!

पर उसके लिए आवश्यक है कि हमारा इतिहास जितना समृद्ध है, उसे उतनी ही ईमानदार और समृद्ध भाषा में लिखा जाए!

पाठ्यक्रम की पुस्तकों में, विशेषकर एनसीईआरटी की पुस्तकों में मध्यकाल का अर्थ ही केवल दिल्ली सल्तनत और उसके पश्चात मुगल साम्राज्य तक सीमित रह गया है!

लेकिन इसे लिखने वालों ने न जाने ऐसा क्यों किया कि दिल्ली सल्तनत के समकालीन पनप और फल फूल रहे राजपूताने के इतिहास की उपेक्षा कर दी है! उन्हें उचित स्थान तो दूर, स्थान ही नहीं दिया गया है!

गोरी, गजनी के आक्रमण, उनकी लूटपाट और नरसंहार, पृथ्वीराज चौहान की वीरता और उदारता आदि को पाठ्यक्रम से ऐसे हटा दिया गया है जैसे पके आमों की टोकरी से किसान सड़े हुए आमों को बड़ी निर्दयतापूर्वक निकाल फेंकता है!

सोमनाथ मंदिर की लूट, भारतवर्ष का वैभव, दिल्ली के तोमरों और चौहानों की वीरता, इन सभी प्रकरणों को बहुत बुरी तरह उपेक्षित रखा गया है!

अलाउद्दीन खिलजी को इतना बड़ा योद्धा और शूरवीर प्रमाणित करने की भरपूर कोशिश की गई है, परन्तु चितौड़ के महाराणा हमीर देव द्वारा उसको दी हुई जबरदस्त चुनौती का जिक्र तक नहीं किया गया है!

जिस खिलजी को दक्षिण पर आक्रमण करने वाला प्रथम सुल्तान कहकर उसका गुणगान किया गया है, वह एक जालिम, अत्यंत क्रूर, व्यभिचारी और समलैंगिक था तथा उसके अपने नौकर मलिक कफुर के साथ समलैंगिक सम्बंध थे, इसके विषय में कुछ भी नहीं लिखा गया है!

इन मुस्लिम सुल्तानों का गुणगान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है ,जबकि युद्ध में पराजित होने के पश्चात, राजपूताने के गौरव का प्रतीक स्त्रियों द्वारा किए जाने वाले “जौहर” को “सामाजिक बुराई” कहकर प्रचारित किया गया है!

इतिहासकारों को न जाने क्यों इस्लामी सुल्तानों द्वारा स्त्रियों पर लगाई गई तमाम पाबंदियों और “पर्दा प्रथा” में सामाजिक बुराई नहीं दिखती, पर शौर्य की प्रतीक और जंग में हारने के बाद भी कोई शत्रु छू न सके, इसके लिए किए जाने वाले “जौहर” में उन्हें बुराई दिखती है!

इस एकतरफा चश्मे में कैद आखों से भला ईमानदारी से इतिहास लेखन की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

दिल्ली के मुस्लिम सुल्तानों ने इस देश के एक बड़े भूभाग पर आधिकार किया और शासन अवश्य किया, किंतु उन्होंने सम्पूर्ण भारत पर एक साथ कभी शासन नहीं किया, यह भी सत्य है! परंतु, पुस्तकों में उन्हें “सम्पूर्ण भारत का विजेता” घोषित कर दिया गया है!

परन्तु, गहराई में जाकर अध्ययन करने से पता चलता है कि भले ही सुल्तानों ने अपने झंडे के नीचे एक बड़े भूखंड को रखा, पर उस समय भी अनेक राज्य और क्षेत्र स्वतंत्र ही थे, अथवा अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे!

सच तो यह है कि दिल्ली सल्तनत के सभी सुल्तानों ने भारतवर्ष को अपनी मिट्टी, अपना देश कभी समझा ही नहीं!

उन्होंने भारतीय शासकों जैसे राजपूतों आदि की तरह स्वयं को इस मिट्टी का पुत्र कभी नहीं माना, बल्कि उन्होंने स्वयं को इस देश का विजेता ही माना! उनका एकमात्र मकसद राज करना और अधिक से अधिक धर्मांतरण करना था!

एबक, बलवन, खिलजी, तुगलक, लोदी आदि सभी सुल्तान वंशों में हुई जबरन सामूहिक धर्म परिवर्तन की अनेक घटनाएं, उनकी क्रूरता की साक्षी हैं!

परन्तु इन सभी आक्रांताओं को नायक की तरह ऐसे पेश किया गया है, जिसे पढ़ने के बाद युवा पीढ़ी उसे ही सत्य मानने लगती है और स्वयं खोजबीन करके सत्य जानने की कोशिश नहीं करती!

फिर आते हैं मुगल साम्राज्य में! पानीपत की पहली लड़ाई में दिल्ली सल्तनत के अंतिम सुल्तान इब्राहिम लोदी की हार हुई और तुर्क बाबर को विजयश्री मिली, जिससे भारतवर्ष पर मुगल सत्ता काबिज हुई!

बाबर को इतिहास में महान योद्धा, कुशल नेतृत्वकर्ता, विद्वान और उदार शासक बताया गया है, परन्तु यह भी सत्य है कि बाबर ने तख्त पर बैठने से पहले और उसके बाद भी हजारों हिंदुओं का धर्मांतरण और इस्लाम स्वीकार न करने पर कत्लेआम कराया!

फिर बाबर के पुत्र हुमायूं और अकबर का जिक्र तो खूब आता है और अकबर के लिए तो बकायदा एक चैप्टर ही लिख दिया गया है, परन्तु उसी अकबर के समकालीन मेवाड़ केसरी महाराणा प्रताप के जिक्र को मात्र दो तीन पैराग्राफ में सिमटा दिया गया है!

ऐसा अन्याय क्यों?

अकबर महाराणा का नाम सुनते ही पसीने पसीने हो जाता था! हल्दीघाटी की लड़ाई के बारे में सीधे ही लिख दिया गया है कि महाराणा प्रताप हार गए, परन्तु जो टक्कर उन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष के बादशाहअकबर को दी, वह “न भूतो, न भविष्यति” है!

फिर ऐसा क्यों है कि महाराणा के गौरवशाली इतिहास से हम पूरी तरह परिचित नहीं?

उनके अलावा भी महाराणा सांगा, राणा कुम्भा, राणा रतन रावल सिंह, राणा हमीर देव…..इन सभी महानायकों को इतना उपेक्षित क्यों रखा गया है? क्या इन सबके इतिहास को संभालने की जिम्मेदारी केवल राजस्थान के लोगों की ही है?

क्या महाराणा केवल राजस्थान के ही थे? अथवा सम्पूर्ण भारतवर्ष में आज उनकी पूजा होनी चाहिए अकबर के स्थान पर?

हमारा आदर्श हजारों स्त्रियों को गुलाम की तरह अपने हरम में रखने वाला अकबर नहीं, बल्कि घास की रोटी खाकर भी अपनी स्वतंत्रता से समझौता न करने वाले महाराणा प्रताप होने चाहिए!

पर उसके लिए आवश्यक है कि भारत के इस सपूत को इतिहास में उचित स्थान दिया जाए! इनके बारे में भी एक विस्तृत चैप्टर हो! पर अफसोस, आजतक ऐसा हो नहीं सका है!

फिर अकबर के वंशजों को देखते हैं! अकबर के बेटे जहांगीर को भी चित्रकला का संरक्षक, विद्वता का पुजारी आदि उपाधियां देकर खूब बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया है, पर उसके मन में भी इस्लामी कट्टरता कूट कूटकर भरी हुई थी, इसके विषय में इतिहासकारों ने अपनी कलम ही रोक दी है!

फिर शाहजहां के बारे में कौन नहीं जानता! ताजमहल का निर्माण करवाने वाले महान शाहजहां की खूब बड़ाई हुई है, पर वह ताजमहल कोई इस्लामी इमारत नही, बल्कि एक हिन्दू शिवालय है और उसे राजस्थान के एक राजपूत शासक से जबरन छीना गया था, इस विषय मे कोई चर्चा नहीं होती!

प्रोफेसर पीएन ओक(पुरुषोत्तम नागेश ओक) जी ने अपनी पुस्तक में एक नहीं, दो नहीं, बल्कि सैकड़ों ऐसे सबूत दिए हैं, जिनसे साबित होता है कि ताजमहल वास्तव में एक हिंदू इमारत थी,जिसे जबरन हथिया कर मुमताज की कब्र बना दिया गया!

ताजमहल प्रेम की निशानी है! मुमताज की याद में बनवाई गई! मुमताज और शाहजहां का प्रेम अद्वितीय था, यह भी खूब प्रचारित किया गया है, किंतु मुमताज शाहजहां के चौदहवें संतान को जन्म देते हुए गुजर गई! और उसके मरते ही शाहजहां ने उसकी बहन से विवाह कर लिया! इसके आलवां भी शाहजहां की कई पत्नियां और हरम में अनगिनत रखैलें थीं!

यह कैसा प्रेम था?

चलिए यह भी ठीक था! पर ताजमहल बनवाने के बाद उन बीस हजार मजदूरों के हाथ कटवा लिए गए थे, इस विषय में भी बात करने पर इतिहासकारों के मुंह सील जाते हैं!

फिर आते हैं इतिहास के सबसे क्रूर शासक “औरंगजेब” पर, जिसे इतिहास में आलमगीर, जिल्ले सुभानी आदि तमाम उपाधियां दे देकर नायक बनाने की भरपूर कोशिश की गई है, परन्तु यह किसी ने ईमानदारी से नहीं लिखा कि इसी औरंगजेब ने अपने बूढ़े पिता शाहजहां को कैद कर लिया था और उसे निर्ममता से मरवा दिया!

इसके अलावां इसी औरंगजेब ने अपने तीन भाईयों, दारा, शुजा और मुराद की पहले खाल उतरवाई और फिर उनका सर कटवा कर स्वयं गद्दी पर बैठा! इस विषय में भी इतिहासकारों की चुप्पी बहुत खलती है!

औरंगजेब एक कट्टरपंथी इस्लामी शासक था! उसने लाखों का कत्लेआम करवाया और असंख्यों का जबरन धर्मांतरण करवाया और अपने सभी कुकृत्यों को “खुदा की इच्छा” मनवाकर खुद को “जिंदा पीर” की उपाधि भी दे डाली!

औंरगजेब को भी समूचे हिंदुस्तान का शासक बता बताकर नायक बनाने की खूब कोशिश हुई है, परन्तु जिस समय औरंगजेब दिल्ली और आगरे में बैठा कभी राजपूतों, कभी सिक्खों और कभी कन्धारों से लड़ रहा था, उसी समय समूचे दक्षिण भारत पर और सह्याद्रि की चोटियों पर छत्रपति शिवाजी महाराज “हिंदवी स्वराज्य” का भगवा ध्वज गाड़ चुके थे और अकेले अपने बाहुबल से औरंगजेब का घमंड चूर चूर कर रहे थे!

औरंगजेब की सेना बड़ी थी, पर शिवाजी महाराज का सीना बड़ा था! अपने जीवनकाल में छत्रपति ने औरंगजेब की दक्खिन विजय का स्वप्न कभी पूरा नहीं होने दिया! उन्होंने हिंदुओं के लिए अपनी धरती मे अपना राज्य, यानी “स्वराज्य” कायम किया! उनके सभी कार्य इतने कुशल, सभी युद्ध इतने अप्रतिम रहे कि आज सारा विश्व उनका गुणगान करता है, परन्तु अफसोस कि देश के ऐसे सपूत को देश के इतिहास में ही उचित जगह नहीं मिली!

संसार के सौ सबसे प्रभावशाली योद्धाओं की सूची में छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम आता है, परन्तु इतिहास की किताबों में उनके लिए एक विस्तृत चैप्टर तक नहीं है! जबकि ऐसे प्रतापी शासक के लिए एक पूरा ग्रंथ भी कम पड़ जाएगा!

पुनःश्च छत्रपति की मृत्यु के पश्चात उनके ज्येष्ठ पुत्र सम्भाजी दूसरे छत्रपति बने और स्वराज्य को संभाल लिया! औरंगजेब 5 लाख की सेना लेकर दक्षिण में गया पर सम्भाजी ने उसे ऐसी टक्कर दी कि उसका सारा घमंड पानी हो गया! अकेले एक रामसेज के किले को जीतने के लिए औरंगजेब की मुगल सेना को छह साल तक मराठों से जूझना पड़ा!

बाद में धोखे की वजह से सम्भाजी को पकड़ लिया गया और औरंगजेब ने पहले उनकी जुबान काटी, आंखें निकलवाई, फिर खाल निकाल दी!

इस निर्ममता के बाद भी उसने सम्भाजी को इस्लाम कबूलने और अपनी जान बचाने का अवसर दिया, पर शिवाजी का पुत्र इस्लाम कैसे स्वीकार कर सकता था! अंततः क्रूर औरंगजेब ने उनकी गर्दन कटवा दी!

इसके बाद भी मराठे एक होकर लड़ते रहे! राजाराम, और फिर ताराबाई ने औरंगजेब और मुगलों की खूब खबर ली! और औरंगजेब जिस दक्खन को जीतने चला था, उसी दक्खन में दफन हो गया!

पर दुखद यह है कि न तो औरंगजेब की इस क्रूरता को पाठ्यक्रम में स्थान दिया गया है और ना ही सम्भाजी के बलिदान, राजाराम और ताराबाई जैसे विभूतियों के विषय में लोग अधिक जानते हैं!

इन सबके बाद भी जब मुगल सत्ता कमजोर पड़ने लगी तो इन्ही मराठों ने उसे संरक्षण दिया! पेशवा बालाजी विश्वनाथ, पेशवा बाजीराव, पेशवा नानासाहेब, पेशवा माधवराव, पेशवा नारायण राव….आदि के विषय में एक एक पैराग्राफ से अधिक कुछ लिखा ही नहीं गया है!

साथ ही सिक्खों के गौरवशाली इतिहास को भी नाममात्र जगह दी गई है! सिक्खों के धार्मिक गुरुओं के विषय में लिखा तो गया है, पर नवम गुरु तेगबहादुर के क्रूर बलिदान और दशम गुरु गोविंद सिंह के शौर्य और पराक्रम को गायब कर दिया गया है!

न तो वीर बंदा वैरागी के विषय के साथ न्याय किया गया है और ना ही गुरु गोविंद सिंह जी के चारों पुत्रों के बलिदान को उचित स्थान मिला है!

उचित स्थान तो दूर, स्थान ही नहीं मिला है!

यह अन्याय एक सच्चा भारतीय कदापि सहन नहीं कर सकता!

पानीपत के तीसरे युद्ध मे सीधे मराठों की हार दिखाकर अंग्रेजी सत्ता का जिक्र आरंभ हो जाता है और आप इतिहास में मध्यकाल से कूदकर सीधे आधुनिक इतिहास में आ जाते हैं!

पुनःश्च सिलेबस वाला आधुनिक इतिहास भी पक्षपात से भरा हुआ नजर आता है! अंग्रेजों से लड़ाई और स्वतंत्रता आंदोलन का सारा श्रेय एक विशेष वर्ग और कुछ विशेष व्यक्तियों को दे दिया गया है और असंख्य नायक, असंख्य बलिदान गुमनाम ही रह गए हैं, यथा वीर सावरकर, खुदीराम बोस, आजाद, भगत सिंह, बिस्मिल, उधम सिंह, अशफाक उल्लाह खान, रोशन सिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी आदि!

कहने को बहुत कुछ है! लिखने को बहुत कुछ है! इतिहास के हर कालखंड यथा प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास का गम्भीर अध्ययन करने से ऐसे अनगिनत उदाहरण, अनगिनत युद्ध और गर्व करने तथा सीखने योग्य अनेकों प्रसंग मिलते हैं, जिनके साथ इतिहासकारों ने न्याय ही नहीं किया है!

न जाने क्यों इन महान विभूतियों के इतिहास से हमे, हमारी पीढ़ियों को वंचित किया गया है!

दुख होता है इतिहास की ऐसी उपेक्षा देखकर!

इसलिए मेरा मानना है, बल्कि हर भारतीय को यह मानना ही होगा कि इस देश के गौरवमयी इतिहास का पुनर्लेखन होना चाहिए और होना ही चाहिए!

इस देश को, इस देश के लोगों को यह जानना ही चाहिए कि उनके असली नायक कौन थे? घास की रोटी खाकर भी स्वतंत्रता को पूजने वाले अथवा जबरन धर्म परिवर्तन और कत्लेआम करवाने वाले क्रूर आक्रांता!

समय आ गया है कि हम इतिहास से सीखें और भविष्य को उचित दिशा दें…और इसके लिए इतिहास का ईमानदारी से लेखन होना ही चाहिए!

इस देश के हर उपेक्षित नायक और हर उपेक्षित घटना को न केवल पाठ्यक्रम में, बल्कि इतिहास की हर एक पुस्तक में स्थान मिलना ही चाहिए, वरना आने वाली पीढ़ियाँ हमसे पूछेंगी कि आप हमारी वास्तविक ऐतिहासिक विरासत को संभाल सकते थे….पर आपने सम्भाला क्यों नहीं?

और अंत में… दिनकर जी की इन पंक्तियों के साथ मैं अपने शब्दों को विराम देना चाहता हूँ…

“समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध!
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध!”


आशीष शाही, ट्रूनिकल द्वारा घोषित लेखनी प्रतियोगिता के दूसरे नंबर विजेता .

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